भाषाओं के बीच झूला झूलती हमारी कहावतें
इस वर्ष ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अंग्रेजी के प्रख्यात लेखक अमिताव घोष का कहना है कि एक भारतीय किसी यूरोपीय या अमेरिकी की तरह एकभाषी नहीं हो सकता। वह अनेक भाषाओं के बीच पलता-बढ़ता है। उसके जेहन में न जाने कितनी भाषाएं घुली-मिली होती हैं। वह घर में कुछ और बोलता है, गली में कुछ और। इसी तरह दफ्तर में वह एक अलग भाषा बोलता है। उनकी यह बात वाकई महत्वपूर्ण है। मैं बचपन में घर में मैथिली बोलता था, बाहर हिंदी। हिंदी भी कई तरीके की। पटना के गली- मोहल्ले की हिंदी पर मगही की छाप है। सब्जीवालों या पानवालों से तो मगही में ही बात करनी पडती थी। लेकिन कॉलेज में अपने शिक्षकों से अलग तरह की हिंदी में बात होती थी, जो मानक हिंदी के करीब थी। दिल्ली आने के बाद जिस हिंदी से परिचय हुआ वह पश्चिमी हिंदी है। अंग्रेजी बोलने का थोड़ा-बहुत अवसर दक्षिण भारत की यात्रा के दौरान मिला। कुछ लोककथाओं पर नजर डालें तो उनमें भी भाषाओं का मिश्रण है। बचपन में अपने दादा से सनी एक लोककथा अब भी याद है, जिसमें हिंदी और मैथिली का अद्भुत घालमेल था। और हिंदी भी पता नहीं कौन-सी। उसकी एक लाइन इस प्रकार है- 'नेबो कट-कट गरी बनाया, मुसा जोतन जोता है, राजा हमारा हल चुराया उससे लड़ने जाता है।' नेबो का मतलब है नींबू और गरी का मतलब गाड़ी। नींबू की लकड़ियों से को गाड़ी बनाई, जिसमें चूहे जोत दिए और उस राजा से लड़ने जा रहा हूं जिसने मेरा हल चुराया। कथा में यह बात कहानी का नायक टेंगर मुखिया बोल रहा है, जो एक नर मछली है। यह मुझे प्रतिरोध का वक्तव्य लगता है। मतलब एक साधारण मछली ने राजा को चुनौती दी। दरअसल टेंगर मुखिया को उनके छोटे आकार के कारण राजा नहीं देख पाया। वह समझ नहीं सका कि हल कौन चला रहा है। इसलिए वह हल लेकर चलागया था। खैर बात भाषा पर हो रही थी। इसमें टेंगर मुखिया एक विचित्र मिश्रित भाषा बोल रहा है लेकिन बाकी पात्र मैथिली में बोलते हैं। मैथिली और हिंदी के बीच की आवाजाही के बीच यह कथा रची गई होगी। इसी तरह और भी कई लोककथाएं देखें तो उनमें कई भाषाएं घुली-मिली होती हैं। २ मैथिली में एक गीत है, जो छोटे बच्चों के साथ खेलते हुए गाया जाता है। कोई व्यक्ति लेटकर अपने दोनों पैर मोड़ लेता है और उस पर बच्चे को औंधे लिटा देता है फिर पैरों को ऊपर-नीचे कर बच्चे को झुलाता हुआ गाता है - घुघुआ मना, उपजे धनाज। इसी से मिलता-जुलता कुछ भोजपुरी में भी है। वहां कुछ चीजें बदली हुई हैं लेकिन भाव कुल मिला कर वही है। भाषा का आदान-प्रदान दरअसल जीवन पद्धतियों का आदान-प्रदान है, मूल्यों का आदान- प्रदान है।
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