"बिरसा मुंडा से हो गए बिरसा भगवान"



लेखक अक्षय हिरवे नगर मण्डलेश्वर

15 नवंबर  जन्म दिवस पर विशेष

 

दुनिया में गत दो हजार वर्षों में जितने महापुरुषों ने भारत में जन्म लिया है उतने महापुरुषों ने अन्य किसी देश में नहीं लिया। अपने देश ने इतने आघात सहन किये फिर भी आज हम खड़े हैं यह संभव हुआ है हर परिस्थिति से लड़ने और मार्ग दिखाने वाले विभिन्न प्रतिभाओं से युक्त महापुरुषों के जन्म लेने के कारण, जिन्होंने आवश्यकता के अनुसार कार्य किये। ऐसा लगता है मां भारती के गले में विविध प्रकार के गुणों से युक्त असंख्य महापुरुषों की माला सुशोभित है जिनमें एक महापुरुष बिरसा मुंडा भी है ।

भारत में प्रथम आक्रमण यवन , शक एवं हूणों का हुआ जो भारत को लूटने के लिए आए। उन्हें अपने वीरों ने दृढ़ता से सामना कर समूल नष्ट किया । द्वितीय आक्रमण मुस्लिम आक्रांताओं का हुआ जो एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में कुरान लेकर आए ,जिनसे हमने पांच सौ वर्षों तक संघर्ष किया। यह संघर्ष शक्ति एवं भक्ति दोनों मार्ग से हुआ और जब यह मुस्लिम शक्ति समाप्ति पर आई तब तीसरा आक्रमण अंग्रेजों का हुआ जिन्होंने इस देश की संपूर्ण व्यवस्था में परिवर्तन कर राष्ट्र को समाप्त करने का प्रयास किया, जिसमें शासन उनके हाथ में था और वह यहाँ के धर्म और संस्कृति को भी बदलने का प्रयास कर रहे थे लेकिन उनका भी संगठित रूप से अलग-अलग क्षेत्रों में विरोध हुआ।

     झारखंड के जनजाति क्षेत्र में धर्मांतरण का ईसाइयों ने बहुत प्रयास किया उसी का पुरजोर विरोध कर जनजाति समाज में जागृति पैदा करने का कार्य बिरसा मुंडा ने किया और बिरसा मुंडा जन जन के प्रिय हो गए । संपूर्ण समाज उनके साथ खड़ा हो गया और वह धरती बाबा बिरसा से बिरसा भगवान हो गए। ऐसे धर्म योद्धा का जीवन संपूर्ण गरीब पिछड़े हिंदू के लिए एक आदर्श है।

जनजाति समाज के लिए समर्पित जीवन

15 नवंबर 1875 - झारखंड रांची के पास उलीहातू गांव में अत्यंत गरीब मजदूर परिवार में जन्म हुआ । बिरसा मुंडा का बचपन बकरी चराने में बीता लेकिन उनकी प्रतिभा संपूर्ण गांव को अपनी ओर आकर्षित कर रही थी जिसे देखकर गांव वालों ने उचित शिक्षा के लिए बिरसा मुंडा को मामा के गांव साल्गा भेजने के लिए प्रोत्साहित किया । मामा के गांव में विद्यालय के शिक्षक ने जब बिरसा जैसे प्रतिभाशाली छात्र को देखा तो मामा को चाईबासा गांव में बिरसा मुंडा कि पढ़ाई के इंतजाम करने का सुझाव दिया। चाईबासा मिशन स्कूल में दाखिले के लिए इसाई धर्म स्वीकार करना अनिवार्य था इसलिए बिरसा मुंडा का संपूर्ण परिवार  धर्मांतरित होकर इसाई बन गया और बिरसा मुंडा का नाम बिरसा डेविड मुण्डा हो गया। इसाई स्कूल होने के कारण स्कूल में जनजाति समाज का मजाक उड़ाया जाता था जो बिरसा मुंडा के लिये असहनीय था उनसे चिढ़कर वह भी इसाईयों का मजाक उड़ाने लगे । 

जनजातीय मुंडा सरदारों की जमीन पर अंग्रेजों ने कब्जा कर उनको धर्मांतरित कर दिया और अग्रेंजों ने कहा कि मुंडा उनकी बात मानते रहेंगे तो उनकी जमीन उन्हें वापस लौटा दी जाएगी। इस प्रकार के शोषण और जनजाति समाज के जल, जंगल, जमीन की रक्षा और समाज के उत्थान के लिए मुंडाओं के भूमि आंदोलन में बिरसा मुंडा भी सम्मिलित हो गए, अंग्रेजों ने इस आंदोलन को कुचल दिया और इसकी निंदा की, साथ ही बिरसा मुंडा को 1890 में विद्यालय से निकाल दिया। फिर पिता के साथ बिरसा मुंडा अपने गांव आ गये।

बिरसा कि प्रेरणा बने प्रसिद्ध वैष्णव संत आनंद पाण्डे

हम देखते हैं हर महापुरुष के पीछे कोई प्रेरणा रहती है जैसे चंद्रगुप्त की प्रेरणा बने चाणक्य,हरिहर बुक्काराय की प्रेरणा बने विद्यारण्य स्वामी, शिवाजी की प्रेरणा बने समर्थगुरु रामदास वैसा ही बिरसा मुंडा के जीवन में भी हुआ 1891 में प्रसिद्ध वैष्णव संत आनंद पांडे के उपदेशों से प्रभावित होकर बिरसा ने इसाई मत छोड़कर हिंदू धर्म की दीक्षा ली। मांसाहार छोड़ यज्ञोपवित धारण किया। अनेक धार्मिक ग्रंथों रामायण, महाभारत एवं गीता का अध्ययन किया और संत आनंद पांडे और उनके भाई सुखराम पांडे से आध्यात्मिकता का संस्कार लेकर चार वर्ष का एकांतवास कर हिंदू महात्मा तपस्वी, केसरिया वस्त्र, तीर कामची एवं लकड़ी की खड़ाऊ धारण किए हुए लौटे। लोग उनकी ओर आकर्षित हो रहे थे उनकी प्रसिद्धि एक धर्म सुधारक की हो गई। उन्होंने गौ हत्या, मांसाहार का विरोध किया । बिरसा मुंडा लोगों की सेवा में हमेशा तत्पर रहने लगे ।लोग उनके प्रति बहुत श्रद्धा रखने लगे । लोक मान्यता ऐसी है कि कई चमत्कार एवं अलौकिक घटनाओं को लोगों ने देखा एवं उनके स्पर्श मात्र से ही लोगों के कष्ट दूर होने लगे । धर्म सस्कृति और राष्ट्र जीवन के चलते वह महापुरुष हुए और जिस प्रकार कृष्ण, बुद्ध, महावीर अपने समाज और राष्ट्र आधारित जीवन के चलते प्रकारांतर में देवतुल्य हुए ठीक बिरसा भी उसी रूप में देवतुल्य पूजनीय हुए । 

     उनका जीवन शस्त्र और शास्त्र अर्थात संत और सैनिक का समागम था। अंग्रेजों द्वारा आदिवासियों को भ्रमित कर एवं प्रलोभन देकर इसाई बनाया जा रहा था अनेक प्रकार के अंधविश्वास खड़े हो गए थे। उन्होंने लोगों को एकत्रित कर उपदेश देना आरंभ किया, इसाई धर्म हमारा अपना धर्म नहीं है यह अंग्रेजों का धर्म है और उसे अपनाने से हम हमारे पूर्वजों की संस्कृति एवं परंपरा से दूर हो रहे हैं । बिरसा के उपदेश सुनकर बड़ी मात्रा में लोग पुनः हिंदू धर्म में वापस लौटने लगे जिससे अंग्रेज एवं पाखंडी लोग बिरसा मुंडा के प्रति षड्यंत्र रचने लगे ।  

  अंग्रेजों के विरुद्ध संगठित प्रयत्न

    बिरसा मुंडा  ने अंग्रेजों को देश से बाहर करने का संगठित प्रयत्न किया जिसके कारण उनकी गणना महान देशभक्तों में की जाती है। 1893-94 में अंग्रेजों द्वारा सिंधभूमि, मानभूमि, पलामू क्षेत्र को आरक्षित वन क्षेत्र घोषित कर जनजाति समाज के अधिकार सीमित कर दिये । बिरसा मुंडा ने इसका विरोध कर अपने पुराने अधिकार प्राप्त करने और हो रहे अत्याचारों के खिलाफ न्यायालय में याचिका दायर की परन्तु शासन अंग्रेजों का था ।उनकी याचिका पर ध्यान नहीं दिया गया ।परन्तु इस घटना के कारण बिरसा मुंडा के प्रति जनमानस में श्रद्धा और विश्वास का भाव पैदा हुआ। बिरसा मुंडा को लग गया था कि अब अंग्रेजों के खिलाफ जनजाति समाज को खड़ा करना होगा इसलिए उन्होंने जनजातीय समाज को संगठित करना आरंभ कर अंग्रेजों द्वारा हो रहे अत्याचार, जमींदारों द्वारा हो रहे शोषण और जनजातियों को राजनीतिक अधिकारों के प्रति जागरुक करना आरंभ कर दिया और एक मजबूत संगठन खड़ा कर 1894 में अंग्रेजों से लगान माफी के लिए आंदोलन किया।                   

बिरसा की लोकप्रियता और उनके संगठन की बढ़ती ताकत से अंग्रेज मिशनरी चिंतित हो गए और भविष्य का संकट मान उन्हें 1895 की रात्रि में सोते समय गिरफ्तार कर लिया। यह समाचार जैसे ही वनक्षेत्र में फैला तो हजारों की संख्या में जनजातियों ने थाने को घेर लिया। बिरसा मुंडा के ऊपर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर दो वर्ष का सश्रम कारावास दिया गया। उन्हें हजारीबाग जेल में रखा गया। बिरसा मुंडा अंग्रेजों के प्रति घृणा से भर गये उनके घोर विरोधी हो गए और उन्होंने संकल्प लिया कि अंग्रेजों को जब तक देश से बाहर नहीं करेंगे चैन से नहीं बैठेंगे।सजा पूरी होने पर अंग्रेजों ने उन्हें आंदोलन नहीं करने की हिदायत दे कर कारावास से मुक्त किया। पर बिरसा तो पहले ही अंग्रेजों को देश से बाहर करने का संकल्प ले चुके थे ।उन्होंने गुप्त रुप से अंग्रेजों के विरुद्ध आंदोलन आरंभ कर दिया ।उन्होंने अपने साथियों की एक टोली तैयार की और जन जागरण और जन सभायें प्रारंभ कीं। उनकी सभाओं में हजारों की संख्या में लोग आते थे। वह सभा में  जनजाति भाइयों से आह्वान करते थे *"हम ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह की घोषणा करते हैं और अंग्रेजी हुकुमत के आदेश का पालन नहीं करेंगे। ओ गोरी चमड़ी वाले अंग्रेजों, तुम्हारा हमारे देश में क्या काम ? इसलिए बेहतर है कि वापस अपने देश लौट जाओ वरना लाशों के ढेर लगा दिए जाएंगे।"* अंग्रेजों ने फिर उनकी गिरफ्तारी का आदेश जारी कर दिया ।पर इस बार बिरसा अंग्रेजों से खुलकर युद्ध करना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपने साथियों के साथ शस्त्र संग्रह, तीर कमान बनाने के साथ स्थानीय लोगों को शास्त्रों को तैयार रखने के लिए तैयार कर सशस्त्र क्रांति का आह्वान किया। बिरसा के साथियों ने बलपूर्वक सत्ता पर अधिकार , पादरियों और अंग्रेजों को हटाकर बिरसा के नेतृत्व में एक नया राज्य बनाने की योजना बनाई थी । 1897 से 1900 के बीच मुंडा और अंग्रेजों के बीच युद्ध होते रहे, जिससे अंग्रेजी सरकार परेशान हो गई थी और वह इस आंदोलन को कुचलने के मूड में आ चुकी थी।                

1897 में अपने चार सौ साथियों के साथ खूंटी थाने पर धावा बोला। 1898 में तांगा नदी के किनारे बिरसा मुण्डा और अंग्रेज सेना में युद्ध हुआ जिसमें पहले अंग्रेज सेना पराजित हो गई पर उसके पश्चात अंग्रेजों ने घबराकर अतिरिक्त सेना बुलाकर सीधा युध्द किया । जनजाति सेना के पास पुराने जमाने के शस्त्र थे पर अंग्रेजों के पास आधुनिक शस्त्र थे इस युद्ध में बिरसा के 400 अनुयायी बलिदान हुए और अधिकांश जनजातीय नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया, जिनमें बिरसा के अनेक शिष्य थे।                              

जनवरी 1900 डोमबाड़ी पहाड़ी पर युद्ध हुआ, जब बिरसा एक सभा को संबोधित कर रहे थे। जिसमें कई औरतें और बच्चे मारे गए। अंत में पांच सौ रुपए के लालच में पड़कर जीराकेल गांव के एक व्यक्ति ने बिरसा के रुकने का स्थान अंग्रेजों को बता दिया और 3 फरवरी 1900 को चक्रधरपुर में उन्हें गिरफ्तार कर कमर ओर पैरों में जंजीरें में डालकर राँची जेल भेज दिया गया। जहाँ उन्हें अनेक यातनाएं दी गईं। 9 जून 1900 प्रातः 8:00 बजे उन्हें खून की उल्टियां हुईं और 9:00 बजे वह देवआत्मा संसार से विदा हो गई। ऐसा कहा जाता हैं अंग्रेजों ने उन्हें मंदगति का जहर दिया था जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई । जनजाति समाज आज भी उन्हें जीवित मानता है और उनकी पूजा करता है।                    

बिरसा मुंडा ने अपने जीवन को सार्थक किया

एक शंकराचार्य थे जिन्होंने 36 वर्ष की अल्पआयु में हिंदू धर्म का पुनर्जागरण किया उसी प्रकार बिरसा मुंडा 25 वर्ष की अल्पआयु में जनजाति समाज का नवजागरण कर आधुनिक शंकराचार्य बन गए। वह ऋषि, समाज सुधारक एवं क्रांतिकारी थे ।आज उनकी गणना महान देशभक्तों में की जाती है ।स्वतंत्रता आंदोलन एवं जनजातिय समाज के वे इसाईयों द्वारा हो रहे धर्मांतरण का  विरोध कर जनजातीय समाज को अपने धर्म, संस्कृति एवं परंपराओं पर दृढ़ रहने का संदेश दे गए । उन्होंने सामाजिक सुधार , स्वच्छता एवं शिक्षा के लिए समाज को जागरुक किया । बिरसा मुंडा ने आर्थिक सुधार में शोषण से मुक्ति एवं बेगारी प्रथा के विरुद्ध आंदोलन किया जिसके कारण जमीदारों , जागीरदारों के घरों एवं खेती में कार्य करने वाले लोग आना बंद हो गए। इस प्रकार जनजातीय समाज को अपने अधिकारों के लिए लड़ना सिखाया । भारत की संसद में ऐसे हुतात्मा बिरसा मुंडा का चित्र संसद भवन में लगाया गया है जो जनजातीय समाज और भारतीयों के लिए गौरव की बात है, जो उनके कार्य को हमेशा याद कराता रहेगा। 

ऐसे महान देशभक्त को उनके जन्मदिवस पर नमन एवं सादर श्रद्धांजलि।।


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