कर्म और कर्तव्य.....


 

कर्म और कर्तव्य ये दो ऐसे शब्द है , जिनमे हर मनुष्य का नाता है । कर्म किए बिना कोई भी व्यक्ति इस संसार मे नही रह सकता । यदि कोई न भी चाहे , तो भी वह कर्म करता है और वह जो कर्म करता है उसे उसका फल मिलता है , जैसे यदि कोई न चाहे तो भी वह सास लेगा , न चाहते हुए भी वह स्वयं को विचार करने से नही रोक पाएगा। यदि कोई शारिरीक परिश्रम नही करना चाहता तो विश्राम करना भी एक कर्म ही होगा। इस तरह कर्म करने से कोई भी व्यक्ति मुक्त नही है कर्तव्य वह है , जिसे करना हम अपना दायित्व मानते है, जिसे करना हम जरूरी समझते है। कर्तव्य के माध्यम से हम अपने कर्म से बंध जाते है और फिर उसको किए बगैर हम उससे मुक्त नही हो पाते। 

कर्म हर व्यक्ति के साथ अनवरत घटित हो रहा है। इसलिए हम इसे एक दिशा प्रदान कर सकते है । कर्म की दिशा को सकारात्मक दिशा में मोड़ा जा सकता है। वही कर्म के माध्यम से विध्वंसक दिशा की ओर भी जाया जा सकता है। एकमात्र मनुष्य जीवन मे कर्म करने की स्वतंत्रता है। किस तरह का कर्म करना है मनुष्य के चयन पर निर्भर करता है और तदनुसार ही फल मिलता है कर्म का फल मनुष्य के हाथ मे या निर्धारित सीमा में बंधा नही होता । इसका फल देने वाला कोई और है, जिसे हम परमात्मा या भगवान कहते है। निश्चित रूप से व्यक्ति का, उसके कर्मफल पर किसी भी तरह से आधिकार या हस्तक्षेप नही है। इसलिए अपने कर्मों का जो फल उसे मिलता है, वह उसे भोगना ही पड़ता है। 

कर्म व्यक्ति को मुक्त भी कर सकता है और उसे बाँध भी सकता है , लेकिन कर्तव्य सदैव व्यक्ति को बांधता है कर्तव्य का वहन करने में व्यक्ति पूर्ण रूप से स्वंत्रत नही होता। इसलिए जो वैरागी होते है, सन्यासी होते है, वे सबसे पहले अपने कर्तव्यो का त्याग करते है। कर्म तो वे भी करते है, लेकिन कर्तव्यों के प्रति उदासीन हो जाते है। महान सन्यासी स्वामी विवेकानंद का कहना था कि उनका संसार के प्रति कोई कर्तव्य नही है। उनका यह वाक्य उनके मुक्त पुरूष होने का बोध करता है हम कुछ करे या न करे , घटनाएं यथावत घटती है। इसलिए हमारे करने से ही कुछ होगा, हमारे बिना कुछ नही हो सकता , ऐसा सोचना निरर्थक है। व्यक्ति को अपने कर्म करने के विषय मे गम्भीर और निष्काम, दोनो तरह का होना चाहिए। गंभीर तब होना चाहिए, जब हम किसी कार्य को कर सकते हो या उसे करने का सामर्थ्य हमारे अंदर हो, तब पूरी तन्मयता व लगन से उसे करने में जुट जाना चाहिए और जो कार्य हमारी सामर्थ्य सीमा से परे हो, उसके लिए निष्काम होते हुए आनंद मनाना चाहिए और खुश रहना चाहिए।

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