आत्मा की शुचि/निर्मलता ही मोक्ष का मार्ग है- पंडित प्रबल जी शास्त्री
देवास। दिगंबर जैन समाज के दश लक्षण पर्व के चतुर्थ दिन पंडित प्रबल जी शास्त्री ने उत्तम शौच धर्म का महत्व समझाते हुए कहा कि उत्तम शौच धर्म में शौच/शुचि का अर्थ होता है शुद्धि/पवित्रता। सबसे पहली बात तो यह जान लेना चाहिए कि गंगादि में हज़ारों स्नान करने से शौचधर्म नहीं होता है। वह मिथ्यादृष्टि हैं जो इस शरीर को स्नानादि से साफ़ कर लेने को शौच मानते हैं, जबकि ज्ञानी-जन कहते हैं कि शरीर को शुद्ध मानना वृथा है ।शौचधर्म का प्रयोजन तो आत्मा को पवित्र करने से होता है, इसका इस देह से कोई सम्बन्ध नहीं मानना। अनादि काल से यह आत्मा लोभ रूपी मल से मलिन हो रखा है उसे पवित्र करना तथा करने का भाव आना ही शौचधर्म है। लोभ 4 प्रकार होता है - जीवन को लोभ, निरोगता का लोभ, इन्द्रियों का लोभ, भोग्य सामग्री का लोभ। इन सभी 4 प्रकार लोभ का अत्यंत अभाव हो जाना ही शौच धर्म है ! लोभ-रूप मैल को धोने का जल - जो समभाव और संतोष रूपी जल से इस लोभरूपी मल को धोता है, उसी के निर्मल शौचधर्म होता है ! दूसरे का वैभव, ऐश्वर्य, यश, ज्ञान, पुण्य का उदय, प्रभाव, स्त्री, संतान, धन, संपत्ति इत्यादि देख कर कभी ईर्ष्या नहीं रखन