लोकतंत्र में जनता को मूर्ख बना रही ‘सरकारें’, अब आये तो जूतों की माला से होगा स्वागत !

हालांकि जनता जागरुक है, इनके समीकरण बिगाड़ने में देर नही करती
राहुल परमार,
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहां का लोकतंत्र विश्व में अव्वल स्थानों पर गिना जाता है। जहां जनता देश के विकास का भविष्य तय करती है। लेकिन यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि वही विकास के पुरुष जिन्हें जनता उनके क्षेत्रों में भगवान के नाम तक से संबोधित कर देती हैं, उसी जनता को लोकतंत्र के त्यौहार के बाद भूल से जाते हैं। 
शुध्द मामलों में बात की जावे यदि मध्यप्रदेश के नाटकीय राजनीतिक षड्यंत्र की । जी, ‘‘षड्यंत्र’’ शब्द का प्रयोग कोई गलत नही क्योंकि यदि यह जनता की भलाई के लिए होता तो संभवतः सत्ता के लालची सुर्य को रोशनी नही दिखाते ! सत्ता के लालच में दोनों पार्टियों के उच्च नेताओं ने कोई कसर नही छोड़ी। क्षेत्रीय विधायकों ने तो इस नाटक में अहम किरदार निभाया है। नाटक में मंत्रोचित्त मंच पर अपना अभिनय दिखाना तो कोई नेताओं से सीखे। वह दिन दूर नही जब नेता अपने क्षेत्र में वोट मांगने जाए और जनता उनका स्वागत जूतों की माला से करें! 



जिस प्रकार मध्यप्रदेश में सरकार की बंदरबाट का खेल खेला जा रहा है उससे जनता को कितना लाभ होने वाला है। यह बात अभी तक किसी पार्टी ने नही बताई है। सरकार को पाने के लिए महामहिम राज्यपाल से पत्र व्यवहार, उन्हें तक नियम बताया जाना और माननीय सुप्रीम कोर्ट तक मामले का जाना, सत्ता के लालच को सिध्द करता है। विधायकों के त्याग पत्र, सोशल मिडिया पर विडियो और उच्च कोटि के नेताओं के टुच्चे भाषणों ने जनता को भ्रमित करके रख दिया है। एक ओर सरकार बनाने को लेकर हो रहे खर्चे और विधायकों की खरीद फरोख्त की सुचनाएं, आखिर लोकतंत्र के कौन से हिस्से को मजबूत कर रही हैं। जनता को समझना होगा कि यह जो विधायक आपके समक्ष चुनाव के दौरान नाटकीय अभिनय करके जाते हैं उसी का असल अभिनय वे आपके प्रति विधानसभा और अन्य स्थानों पर बखुबी दिखाते हैं। ये वही विधायक और सरकार हैं जो आपके टैक्स के पैसों के बल पर वीआईपी सुरक्षा और संसाधनों पर व्यय करते हैं। इसी पैसे से सरकार चलाते हैं, अपना घर भरते हैं। उसी जनता के पैसों से चुनाव होते हैं और जब तक वापस चुनाव न आ जाए तब तक इस नाटक का अभिनय जारी रहता है। आखिर देश में और कितने राज्यों में इन नेताओं ने डुबोने का संकल्प ले लिया है। ये किसके हितैषी हैं ? दुर्भाग्य की बात है कि इन्हें इनकी औकात दिखाने वाला चौथा स्तंभ भी इन्ही के बयानों को बड़ा बता-बताकर अपनी टीआरपी सिध्द करने में लगे हैं । जबकि देश में महामारी के संदिग्धों और मरीजों की संख्या दिनोदिन बढ़ती जा रही है। यहां सरकार की अधिक चिंता है, चाहे यह संख्या दिनोदिन गुणित हो जाए।


 
जनता से वोट मांगने का षड्यंत्र 
प्रारंभ से चलते हैं लोकतंत्र के त्यौहार की ओर तो समझ आता है कि प्रथम तो हमें अपने पसंदीदा विधायक अथवा नेता को चुनने के लिए किन लोगों के निमंत्रण आते हैं। यह भी व्यावसायिक राजनीति का हिस्सा ही है। आप किस समाज से हैं? किस संगठन से हैं? अथवा आपका सबसे विशेष मित्र कौन सा है ? या फिर आपका वोट उन्हें किस प्रकार मिल जायेगा ? यह सभी व्यवस्था इस त्यौहार के दौरान हो जाती है। हालांकि जनता जागरुक है, इनके समीकरण बिगाड़ने में देर नही करती 


बात करें अगली सीढ़ी की . .  .
जीतने के बाद बात आती है अगली महत्वपूर्ण कार्य की वह है सरकार निर्माण । सरकार निर्माण में बात की जाती है संख्या बल की, न की जनता की ! कौन किसको समर्थन देगा ? कौन पार्टी कितना खर्चा करेगी ? इत्यादि
जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि क्रिकेट मैचों में विज्ञापनों में बिकने वाले व्यक्ति की तरह हो जाता है। कौन सा ठेका किस क्षेत्र में जायेगा और कौन धनवान वहां इन्वेस्ट करेगा, सब कुछ व्यवस्था हो जाती है। जनता के वोट का असली मजा जनसेवक ही ले रहे हैं। जब त्यौहार होता है तो वे जनता से सीधे संपर्क करते हैं और जीत गये तो जनता उनसे सीधे संपर्क भी नही कर सकती। 


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