भागें नहीं, राह निकालें

केंद्र और राज्यों के चुनाव एकसाथ कराने को लेकर राजनीतिक नेतृत्व में आम सहमति तो क्या, व्यापक संवाद भी अभी नहीं बन पा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को 'एक देश, एक चुनाव' पर चर्चा के लिए सभी राजनीतिक दलों की बैठक बुलाई जिसमें जेडीयू प्रमुख और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, एनसीपी प्रमुख शरद पवार, शिरोमणि अकाली दल के नेता सुखबीर बादल, बीजेडी प्रमुख नवीन पटनायक, पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती, वाईएसआर कांग्रेस के प्रमुख और तेलंगाना के मुख्यमंत्री जगन मोहन रेड्डी, सीपीएम नेता सीताराम येचुरी और सीपीआई के डी राजा ने हिस्सा लिया। कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, डीएमके, टीडीपी और टीएमसी की इस बैठक से गैरहाजिरी यह बताती है कि विपक्ष इस मामले में दिलचस्पी नहीं दिखा रहा। बहरहाल, लगभग लगातार चुनाव हमारे सिस्टम का एक अहम मसला है जिसे फौरी राजनीति से ऊपर उठकर देखा जाना चाहिए। अरसे से महसूस किया जा रहा है कि हमारी चुनाव प्रणाली में कुछ बुनियादी बीमारियां घर कर गई हैं। चुनावों का आलम यह है कि दो-चार महीने भी ऐसे नहीं गुजरते जब देश चुनावी मोड में न दिखता हो। लोकसभा चुनाव जरूर इस सदी में पांच साल पर होते आ रहे हैं लेकिन राज्यों के चुनाव हर समय होते रहते हैं। इनके घोषित होते ही आचार संहिता लागू हो जाती है जिससे सरकारें अहम फैसले नहीं ले पातीं और खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने से हर साल करीब चार महीने आचार संहिता के दायरे में आ जाते हैं। इसका उलट पक्ष यह कि कुछ राज्यों में अपना टेंपो हाई रखने के लिए केंद्र सरकार पॉपुलिस्ट फैसले लेने लगती है जिसका नुकसान बाकी राज्यों को होता है। राजनीति का मुहावरा ऐसा बदला है कि राज्यों में भी वोट केंद्र के फैसलों पर पड़ने लगे हैं। सूचना क्रांति ने पूरे देश को जोड़ दिया है। एक कोने में हो रहे चुनाव का असर पूरे देश पर पड़ता है। बढ़ता चुनावी खर्च एक अलग समस्या है जिससे काले धन को बढ़ावा मिल रहा है। सैन्य बलों और बाकी अमले की तैनाती में पैसे तो लगते ही हैं, उनकी नियमित भूमिकाएं भी प्रभावित होती हैं। चुनाव एकसाथ कराए जाएं तो इन बीमारियों का असर कम हो सकता है। सरकार बनने की कोई सूरत नहीं बनती तो क्या वहां मध्यावधि चुनाव नहीं कराए जाएंगे? ऐसे और भी कई सवाल है जिन पर विचार किया जाना चाहिए लेकिन रास्ता तभी निकलेगा जब राजनीतिक दल चुनाव , सुधार के बुनियादी प्रश्नों से कतराना छोड़ें। सिस्टम में बदलाव कभी आसान नहीं होता लेकिन उसमें गंभीर समस्याएं देखकर भी उनसे आंखें मूंदे रहना जिम्मेदारी से भागने जैसा है।


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