छले जाने हेतु अभिशप्त हैं किसान



  • राजू पाण्डेय


अर्थव्यवस्थाओं के आकलन की वर्तमान विधियों के अनुसार कृषि क्षेत्र की जीडीपी में घटती हिस्सेदारी विकसित अर्थव्यवस्था का द्योतक है। यह कहा जाता है कि ऐसा नहीं है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में कृषि क्षेत्र का विकास अवरुद्ध हो जाता है बल्कि उद्योग, निर्माण और सेवा क्षेत्र में तीव्र गति से उन्नति होने के कारण कृषि क्षेत्र की भागीदारी जीडीपी में कम हो जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी जीडीपी में 50 प्रतिशत थी जो वर्तमान में घटकर 17.32 प्रतिशत रह गई है। जबकि अब औद्योगिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 29.02 प्रतिशत है। आज जीडीपी में सर्वाधिक 53.66 प्रतिशत योगदान सेवा क्षेत्र का है। आर्थिक विकास के इस मॉडल को कृषि और ग्रामीण विकास विरोधी तथा बेरोजगारी बढ़ाने वाला कहने का साहस हममें से शायद किसी के पास नहीं जब से हिंदी पट्टी के तीन राज्यों-छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में सत्ता परिवर्तन हुआ है और इसके लिए किसानों में व्याप्त असंतोष तथा गुस्से को एक प्रमुख कारण माना गया है तब से किसानों की समस्याओं के प्रति राजनीतिक दल न केवल गंभीर हुए हैं बल्कि पहली बार किसानों को निर्णायक भूमिका निभाने में सक्षम मतदाता- समूह के रूप में चिह्नित कर उनके आक्रोश को शांत करने की कोशिशें होती दिख रही हैं। किसान आंदोलन में राजनीतिक दलों का प्रवेश एक आवश्यक परिघटना है और इन राजनीतिक दलों का आश्रय लेना किसानों की विवशता है। किसान आंदोलन को नियंत्रित करने की राजनीतिक दलों की लालसा स्वाभाविक है क्योंकि किसान आंदोलन में प्रवेश कर वे न केवल किसानों की सोच को तात्कालिक आर्थिक राहत प्रदान करने वाले मुद्दों तक सीमित रख सकते हैं बल्कि उनके संतोष अथवा असंतोष को अपनी पार्टी के एजेंडे के अनुसार किसानेतर मुद्दों की ओर मोड़ सकते हैं। प्रमुख राष्ट्रीय दलों के नेताओं के किसानों के समर्थन में दिए जा रहे लच्छेदार भाषणों और बयानों के शोर में वे बुनियादी मुद्दे अनसुने रह जा रहे हैं जिन पर हर उस राजनीतिक दल की स्पष्ट राय जानने की जरूरत है जो आज स्वयं को सबसे बड़े किसान हितैषी दल के रूप में प्रस्तुत कर रहा है। दोनों प्रमुख राष्ट्रीय दलों से यह पूछा जाना चाहिए कि विश्व बैंक एवं अन्य अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के दबाव में क्या जानबूझकर कृषि क्षेत्र को निरन्तर उपेक्षित नहीं किया जा रहा है? जब रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन कहते हैं कि सबसे बड़ा सुधार तब होगा जब हम कृषि क्षेत्र से लोगों को निकाल कर शहरों में भेजेंगे क्योंकि इस तरह हम बाजार की सस्ते मजदूरों की आवश्यकता को पूर्ण कर पाएंगे तो क्या वे विश्व बैंक के इस सुझाव के क्रियान्वयन की ओर संकेत कर रहे होते हैं जिसके अनुसार 40 करोड़ लोगों को कृषि क्षेत्र से निकाल कर शहरों में भेजा जाना चाहिए ताकि उद्योगों की श्रमिकों की आवश्यकता पूर्ण हो सके। इसी प्रकार जब देश के तत्कालीन प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन कहते हैं कि कृषि का मशीनीकरण अत्यंत आवश्यक है क्योंकि कृषि उत्पादन में अनावश्यक रूप से बहुत लोगों के जुड़ाव के कारण उत्पादन लागत बहुत ज्यादा बढ़ जाती है तब वे विश्व बैंक के इसी एजेंडे के क्रियान्वयन की ओर संकेत दे रहे होते हैं भले ही उनका तर्क कृषि को फायदे का सौदा बनाने के लिए मानव श्रम की अनिवार्यता को कम करने का होता है। अर्थव्यवस्थाओं के आकलन की वर्तमान विधियों के अनुसार कृषि क्षेत्र की जीडीपी में घटती हिस्सेदारी विकसित अर्थव्यवस्था का द्योतक है। यह कहा जाता है कि ऐसा नहीं है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में कृषि क्षेत्र का विकास अवरुद्ध हो जाता है बल्कि उद्योग, निर्माण और सेवा क्षेत्र में तीव्र गति से उन्नति होने के कारण कृषि क्षेत्र की भागीदारी जीडीपी में कम हो जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी जीडीपी में 50 प्रतिशत थी जो वर्तमान में घटकर 17.32 प्रतिशत रह गई है। जबकि अब औद्योगिक क्षेत्र की हिस्सेदारी 29.02 प्रतिशत है। आज जीडीपी में सर्वाधिक 53.66 प्रतिशत योगदान सेवा क्षेत्र का है। आर्थिक विकास के इस मॉडल को कृषि और ग्रामीण विकास विरोधी तथा बेरोजगारी बढ़ाने वाला कहने का साहस हममें से शायद किसी के पास नहीं है। वर्तमान में हम जिस आर्थिक मॉडल को अपना चुके हैं वह यूरोप, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया आदि देशों में किसानों की बदहाली और बर्बादी के लिए उत्तरदायी रहा है किंतु इस मॉडल को बड़े जोर शोर से खेती की समस्याओं के समाधान के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। भारत जैसे देश में जहाँ कृषि से लगभग 60 करोड़ लोग सीधे जुड़े हुए हैं यदि वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के कथित व्यापक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कृषि क्षेत्र को बलिदान कर दिया जाता है तो इसके परिणाम इन लोगों के लिए विनाशकारी होंगे।


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